कोरोना डायरी-15 :महामारी के शिकार महामारी रच रहे

 8 अप्रैल 2020, प्रात: 8.30 बजे

शक का जहर अगर समूचे समाज में फैल जाए, तो जान लीजिए कि आप उस स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां से वापसी आसान नहीं होती। वैसे भी आपसी विश्वास के तंतु कच्चे धागों से बिने जाते हैं। बड़ी जल्दी चटकते हैं, दरकते हैं और न संभालो, तो टूट जाते हैं। टूटने के बाद आप कितने ही कुशल क्यों न हों, जोड़ने पर गांठ पड़ जाती है। गांठ, जो कभी खत्म नहीं होती। गांठ, जो स्नेह की राह में स्थाई गतिरोधक का काम करती है। गाँठ जिसपर से गुजरने वालों को तब तक नागवार झटके झेलने पड़ते हैं, जब तक कि समय की गर्त उसे समतल न कर दे।

हम ऐसे ही कठिन वक्त में प्रवेश कर रहे हैं। इसे तुरंत न रोका गया, तो परिणाम भयानक हो सकते हैं। कल रात साढ़े ग्यारह बजे फोन में थरथराहट हुई। उनींदा था क्योंकि नींद उड़ चुकी है ।अशुभ  खबरें अप्रिय मुखड़ा लिए जब-तब मेरे दिमाग के दरवाजे खटखटाती रहती हैं। संदेश रांची से था। गुमला के सिसई में एक नौजवान भोजन कर रात में टहल रहा था। इस बीच पता नहीं किस नामुराद ने यह अफवाह उड़ा दी कि कुछ लोग गांव में घूम-घूमकर तालाबों पर, दरवाजों पर, खिड़कियों पर, हर उस जगह पर थूक रहे हैं, जहां आपकी देह का स्पर्श हो सकता है। पड़ोस के लड़कों नेपड़ोस के लड़कों ने उस नौजवान को धर पकड़ा। पहले बहस हुई और फिर मारपीट। उस अकेले का कचूमर निकल गया। परिवार वाले बुरी तरह घायल उस नौजवान को लेकर अस्पताल की ओर भागे।

इसी बीच पड़ोस के गांव में ये खबर पहुंची कि ‘उन लोगों ने  ‘हमारे लोगों‘  पर हमला बोल दिया है। बड़ी संख्या में लोग उमड़ पड़े। रास्ते में हाथ आए एक निर्दोष को पीट-पीटकर मार डाला। इसके बाद हुआ टकराव इतना भयंकर था कि कई खून-खच्चर हो गए। अब समूचा इलाका संगीनों के साये में है। हिंसा थम गई है, पर तनाव कायम है। यह तनाव आगे बलि नहीं मांगेगा, इसकी गारंटी है किसी के पास ? दुर्भाग्य से यह अकेली घटना नहीं है। दो दिन पहले प्रयागराज जिले के एक गांव में दो युवकों में बहस हो गई। एक का कहना था कि देश में तबलीगी जमात के लोग कोरोना फैला रहे हैं। दूसरा असहमत था ।यहां भी हाथापाई हुई और गुस्से से थरथराता हुआ एक नौजवान अपने घर से अस्लहा उठालाया और दूसरे का काम तमाम कर डाला। मरने वाले के तीन अबोध बच्चे हैं। जवान विधवा को अब अपना कोई भविष्य नहीं सूझ रहा।

ये जो मर रहे हैं या मार रहे हैं- एक ही मिट्टी की पैदाइश हैं, एक ही हवा से सांस लेकर बड़े हुए और एक गांव में रहने की वजह से इन्होंने तमाम सुख-दुख साथ झेले पर इन दिनों ‘अपना’ खून, खून लगने लगा है और ‘दूसरे’ का पानी। जमात का मरकज नफरत के कांटे बोकर गुजर चुका है। सोशल मीडिया के  बाज़ीगरों ने इसे इतना खाद-पानी दिया कि ये हिन्दुस्तानियत की आत्मा को छलनी करने लगा है। वे जो नफरत की खेती बो रहे हैं, उनसे अनुरोध है कि रुक जाएं। यह आग किसी का चेहरा नहीं पहचानती। किसी के दामन से परहेज नहीं करती। वो जलाती है, तो जलाती चली जाती है। हमने ऐसे नापाक गुनहगारों के सितम तमाम बार झेले हैं। आने वाली पीढ़ियां हैरत से हमारी गाथाएं सुनेंगी और आपस में अचरज व्यक्त करेंगी कि कैसे लोग थे! जब इन पर कुदरत ने एक महामारी थोप दी थी, तो इन्होंने दूसरी

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